चिकित्साडा0 श्री प्रकाश बरनवाल राष्ट्रीय अध्यक्ष एकयुप्रेशर काउंसिल का कहना है कि रोगों के आक्रांत होने पर रोगों से मुक्त होने के लिये जो उपचार किया जाता है वह चिकित्सा कहलाता है। पर व्यापक अर्थ में वे सभी उपचार 'चिकित्सा' के अंतर्गत आ जाते हैं जिनसे स्वास्थ्य की रक्षा और रोगों का निवारण होता है। चिकित्सा विज्ञान [1] है और रोगी की देखभाल करने का अभ्यास [2] है और रोग का निदान, पूर्वानुमान, रोकथाम, उपचार या उनकी चोट या रोग के उपशमन का प्रबंधन है। चिकित्सा में बीमारी की रोकथाम और उपचार द्वारा स्वास्थ्य को बनाए रखने और सुधारने के लिए विकसित विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य देखभाल पद्धतियां शामिल हैं। भावप्रकाश के अनुसार "या क्रिया व्याधिहरणी सा चिकित्सा निगद्यते” अर्थात कोई भी क्रिया जिसके द्वारा रोग की निवृति होती है, वह चिकित्सा कहलाती है। समसामयिक चिकित्सा जैव चिकित्सा विज्ञान, जैव चिकित्सा अनुसंधान, आनुवंशिकी, और चिकित्सा प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग चोट और बीमारी के निदान, उपचार और रोकथाम के लिए करती है, आमतौर पर फार्मास्यूटिकल्स या सर्जरी के माध्यम से भी, लेकिन दूसरों के बीच में मनोचिकित्सा, बाहरी स्प्लिंट्स और ट्रैक्शन, चिकित्सा उपकरणों, जीवविज्ञान के रूप में विविध उपचारों के माध्यम से और आयनकारी विकिरण से भी अनुप्रयोग करती है।[3] वितरणचिकित्सा देखभाल की व्यवस्था को प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक देखभाल श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है।[4] प्राथमिक देखभाल चिकित्सा सेवाएं चिकित्सकों, चिकित्सक सहायकों, नर्स चिकित्सकों, या अन्य स्वास्थ्य पेशेवरों द्वारा प्रदान की जाती हैं, जिनका चिकित्सा उपचार या देखभाल चाहने वाले रोगी के साथ पहला संपर्क होता है।[5] ये चिकित्सक कार्यालयों, क्लीनिकों, नर्सिंग होम, विद्यालयों, गृह दौरे और रोगियों के समीप अन्य स्थानों में होते हैं। लगभग 90% चिकित्सा दौरों का उपचार प्राथमिक देखभाल प्रदाता द्वारा किया जा सकता है। इनमें तीव्र और पुरानी बीमारियों का उपचार, सभी उम्र और दोनों लिंगों के लिए निवारक देखभाल और स्वास्थ्य शिक्षा शामिल है।[6] माध्यमिक देखभाल चिकित्सा सेवाएं चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा उनके कार्यालयों या चिकित्सालय में या स्थानीय सामुदायिक अस्पतालों में उन रोगी के लिए प्रदान की जाती हैं जिसे प्राथमिक देखभाल प्रदाता द्वारा संदर्भित किया गया है जिसने पहले रोगी का निदान या उपचार किया था। [7] रेफरल उन रोगियों के लिए किया जाता है जिन्हें विशेषज्ञों द्वारा निष्पादित विशेषज्ञता या प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है। इनमें औषधालय देखभाल और अंतरंग रोगी सेवाएं दोनों, आपातकालीन विभाग, गहन देखभाल दवा, शल्यचिकित्सा सेवाएं, भौतिक चिकित्सा, प्रसवपीड़ा और प्रसव, एंडोस्कोपी इकाइयां, नैदानिक प्रयोगशाला और मेडिकल इमेजिंग सेवाएं, धर्मशाला केंद्र आदि शामिल हैं। कुछ प्राथमिक देखभाल प्रदाता अस्पताल में भर्ती मरीज की भी देखभाल कर सकते हैं और माध्यमिक देखभाल सेटिंग में बच्चों के जन्म में सहायता कर सकते हैं। तृतीयक देखभाल चिकित्सा सेवाएं विशेषज्ञ अस्पतालों या क्षेत्रीय केंद्रों द्वारा प्रदान की जाती हैं जो नैदानिक और उपचार सुविधाओं से लैस है और स्थानीय अस्पतालों में आमतौर पर उपलब्ध नहीं होती हैं। इनमें ट्रॉमा केंद्र, बर्न ट्रीटमेंट केंद्र, उन्नत नियोनेटोलॉजी इकाई सेवाएं, अंग प्रत्यारोपण, उच्च जोखिम वाली गर्भावस्था, विकिरण अर्बुदविज्ञान आदि शामिल हैं। चिकित्साचिकित्सा, रोगनिवारण और रोगहरण की एक विधि एवं कला तथा वैद्यक के महत्व की एक शाखा है। इसके उद्देश्य स्वास्थ्यरक्षण, रोगनिवारण, रोगउन्मूलन, रोगों के उपद्रवों और दुष्परिणामों के निराकरण और यदि निराकरण न हो तो यथाशक्ति शमन है। एक्युप्रेशर योग नेचुरोपैथी काउंसिल नेचुआजलालपुर के संस्थापक डा0 श्री प्रकाश बरनवाल का कहना है कि "चिकित्सक चिकित्सा करता है और प्रकृति रोगहरण करती है"। रोगों से बचने की रोगियों में शक्ति होती है, जिससे दवा न करने पर भी असंख्य रोगी नीरोग हो जाते है। चिकित्सा ऐसी होनी चाहिए कि वह रोगहरण की शक्तियों में कोई बाधा न डाले, वरन् उसमें सहयोग दे। इसके लिये चिकित्साकर्म में अत्यंत व्यग्रता न दिखानी चाहिए और न रोगियों को नैसर्गिक शक्ति के भरोसे ही छोड़ना, या उत्साहहीन चिकित्सा करनी, चाहिए। स्वास्थ्य को बनाए रखना और रोग तथा महामारियों को उत्पन्न न होने देना रोग निवारक चिकित्सा के अंतर्गत आता है। रोग हो जाने पर उसके नाश के लिये की जानेवाली चिकित्सा को रोगहारक चिकित्सा कहते हैं। जब रोगविज्ञान, विकृतिविज्ञान, द्रव्यगुण विज्ञान इत्यादि विषयों के सम्यक् ज्ञान पर चिकित्सा अधिष्ठित होती है तब उसे युक्तिमूलक चिकित्सा कहते हैं। परंपरागत अनुभव चिकित्सा का आनुभाविक चिकित्सा कहते हैं। चिकित्सा रोगहारक , लाक्षणिक हो सकती है। परिभाषा तथा परिसीमनचिकित्सा विज्ञान फलसमन्वित ऐसा शास्त्र है, जिसमें ऐसे उपायों के उपयोगों का वर्णन है जो लोकस्वास्थ्य तथा वैयक्तिक स्वास्थ्य की दृष्टि से, शरीर संबंधी सभी अवस्थाओं में आवश्यक होता है, जैसे
चिकित्सा शिक्षण में भौतिकी, सांख्यिकी, रसायन, वनस्पति, प्राणि तथा सूक्ष्मजीव विज्ञान, मानवीय शरीररचना, कायिकी-विकृतिविज्ञान, प्रतिरक्षण विज्ञान, इत्यादि प्रत्यक्ष:, तथा अन्य सभी विज्ञान परोक्षत:, सहायक होते हैं। मूलत: सिद्धांत पर आधारित चिकित्सा के तीन प्रकार हैं : यौक्तिक चिकित्सा (रेशनल थिरैपी), मनोदैहिक चिकित्सा (psychophysical therapy) तथा आनुभविक चिकित्सा (Empiric therapy)। यौक्तिक चिकित्सा में रोग के कारणों एवं रोगी के कायिक तथा मानसिक परिवर्तनों को समझकर, ज्ञात प्रभाव की ओषधियों अथवा साधनों का उपयोग किया जाता है। मनोदैहिक चिकित्सा में विशिष्ट मन:चिकित्सा और विश्वासमूलक चिकित्सा दोनों संमिलित हैं। प्रथम के विस्तारों में नाना प्रकार के मनोविश्लेषण वैविध्य है तथा दूसरे में प्लैसेबो (Placebo) सदृश निष्प्रभाव ओषधियाँ और झाड़-फूँक प्रभृति प्रयोग आते हैं। आनुभविक चिकित्सा में ज्ञात लाक्षणिक प्रभावों के बल पर ओषधियों का प्रयोग करते हैं, किन्तु शरीर में दवा किस प्रकार काम करती है, इसक पता नहीं होता। चिकित्सा शब्द के साथ विशेष साधनों के नाम लगाने से विशेष ओषधीय प्रयोगों का बोध होता है, जैसे जलचिकित्सा, विद्युच्चिकित्सा, डायथर्मी (Diathermy) चिकित्सा आदि। इतिहासशब्द के अर्थ तथा इतिहास के अनुसार यथेष्ट काल तक चिकित्सा केवल रोगों को दूर करनेवाले उपचारों की संगृहीत विद्या थी। इसमें साधारण शल्यकर्म और प्रसवकर्म तक के लिये कोई स्थान नहीं था तथा लोकस्वास्थ्य की तो कल्पना भी असंभव थी। अति प्राचीन काल में चिकित्सा की नींव ऐसे उपचारों पर पड़ी, जिनमें रोगहरण के लिये भूत प्रेतों की बाधा को दूर करना आवश्यक समझा जाता था। इन उपचारों से शरीर की अवस्था अथवा उसके घावों इत्यादि का कोई संबंध नहीं होता था। कभी-कभी चिकित्सक अनुभवसिद्ध ओषधियों का प्रयोग भी करते थे। कालांतर में ज्ञात ओषधियों की संख्या बढ़ती गई और झाड़ फूँक के प्रयोग ढीले पड़ने लगे। ईसा से 500 वर्ष पूर्व के, मिस्र देश स्थित पिरामिडों से प्राप्त "ईबर्स पैपाइरस (Ebers Papyrus) नामक लेख ऐसे ही समय का प्रतीक है। चिकित्सा में पहला व्यापक परिवर्तन बुद्धपूर्व भारत की दिवोदास सुश्रुत परंपरा द्वारा हुआ। इसमें ओषधियों के प्रयोग के साथ साथ शवों के व्यवच्छेदन से प्राप्त ज्ञान का उपयोग प्रारंभ हुआ और दोनों प्रकार की चिकित्साओं को एक ही पंक्ति में रखा गया। इस परंपरा के प्रख्यात चिकित्सकों में बुद्धकालीन जीवक का नाम उल्लेखनीय है, जिन्होंने शल्यकर्म और वैद्यक को समान महत्व देकर उन्हे पूर्णत: समकक्ष बनाया। इसके पश्चात् अनेक भारतेतर देशों ने भी शल्यकर्म को चिकित्सा का अभिन्न अंग बनाना आरंभ किया तथा इसी प्रसंग में प्रसवकर्म भी चिकित्सा के भीतर आया। ईसा पूर्व 460 वर्ष के पश्चात् विख्यात चिकित्सक हिपाक्रेटिज हुए, जिन्होंने चिकित्सा को धर्मनिरपेक्ष तथा पर्यवेक्षणान्वेषणमुखी व्यापक व्यवसाय बनाया। मिस्र का सिकंदरिया नामक नगर उस समय इस विद्या का केंद्र था। यहाँ इस परंपरा को 200 वर्षों तक प्रश्रय मिला, किंतु इसके बाद यह लुप्त होने लगी। ईसा पश्चात् 1400 वर्ष तक धर्मांधता के प्राबल्य के कारण वैज्ञानिक चिकित्सा का विस्तार नगण्य रहा, किंतु यूरोप के पुनर्जागरण पर विज्ञान की चतुर्दिक् वृद्धि होने लगी, जिसने चिकित्सा को विशालता दी तथा विभिन्नताओं को हटाया। चिकित्सा की शाखाएँप्राचीन काल में मनुष्य सूर्यप्रकाश, शुद्ध हवा, जल, अग्नि, मिट्टी, खनिज, वनस्पतियों की जड़, छाल, पत्ती आदि द्रव्यों से अनुभव के आधार पर चिकित्सा करता था। इनके गुणधर्म उसे मालूम न थे। इसी प्रकार, रोगों का ज्ञान न होने से, वे रोगों के उत्पन्न होने का कारण देवताओं का कोप समझते थे और उन्हें प्रसन्न करने का मंत्र-तंत्रों से प्रयत्न करते थे। पीछे जैसे जैसे रोगों का ज्ञान बढ़ा, दैवी चिकित्सा का जोर घटता गया और आनुभविक चिकित्सा का विस्तार होता गया। पीछे मैर्केज़ी (Mackenzie), कोख (Koch), एरलिच (Ehrlich) इत्यादि के परिश्रम और सूक्ष्म अवलोकन से आनुभविक चिकित्साद्रव्यों की मूलकता सिद्ध हो गई और अनेक नए द्रव्य आविष्कृत हुए। 20वीं शताब्दी तक चिकित्सा बहुत अधिक विकसित हो गई। आज चिकित्सा की अनेक शाखाएँ बन गई हैं, जिनमें निम्नलिखित विशेष उल्लेखनीय हैं : रोगनिवारक चिकित्साइसमें स्वच्छता, जलशोधन, मोरीपनाले के पानी और मल का विनाश, मक्खी, मच्छर तथा रोगवाहक अन्य कीटों का विनाश, रोगियों को अलगाया जाना, विसूचिकादि रोगों के टीके, त्रुटिजन्य रोगों के लिये त्रुटि द्रव्यों का वितरण, यक्ष्मा, रति रोग, गर्भिणी स्त्रियों तथा बालकों के लिये निदानिकाओं (chinics), की स्थापना, बच्चों के लिये दूध के वितरणादि का समावेश होता है। मनश्चिकित्सा (Psychotherapy)मानसिक विकारों से उत्पन्न शारीरिक विकारों के लिये यह चिकित्सा होती है। अनेक शारीरिक रोग मानसिक चिकित्सा से दूर हो जाते हैं। इसके लिये ईश्वर पर श्रद्धा रखना, पूजा पाठ पर विश्वास रखना, मनोरजंनार्थ गायन, वादन, रम्य-दृश्य-दर्शन आदि मन को शांत और प्रसन्न रखनेवाले उपाय अच्छे होते हैं। औषधि चिकित्सा (Drug therapy)इसमें विविध ओषधियों का सेवन कराया जाता है। अनेक असाध्य रोगों की अचूक ओषधियाँ आज बन गई हैं और निरंतर बन रही हैं। आहार चिकित्सा (Dieto therapy)अनेक रोग, जैसे मधुमेह, बृक्कशोथ, स्थूलता, जठरब्रण इत्यादि आहार से संबंध रखते हैं। इनका निवारण खाद्यों एवं पेयों के नियंत्रण से किया जा सकता है। रसचिकित्सा (Chemotherapy)इसमें ऐसे रसद्रव्यों से चिकित्सा की जाती है जो मनुष्य के लिये विषैले नहीं होते, पर रोगाणुओं के लिये घातक होते हैं। अंत:स्रावी चिकित्सा (Endocrine therapy)इसमें अंत:स्राव या संश्लिष्ट अंत:स्राव द्वारा रोगों का निवारण होता है। यांत्रिक चिकित्सा (Mechano therapy)इसमें मालिश, कंपन, विविध व्यायाम, स्वीडीय अंगायाम (Swedish movement) इत्यादि द्वारा चिकित्सा होती है। जीवचिकित्सा (Biotherapy)इसमें सीरम, वैक्सीन, प्रतिविष इत्यादि द्वारा चिकित्सा होती है। अन्य चिकित्साएँइनमें शल्यकर्म, दहन चिकित्सा, विद्युद्वारा चिकित्सा (Electro shock therapy), स्नान चिकित्सा, वायुदाब चिकित्सा (Aerotherapy), सूर्यरश्मि चिकित्सा, (Helio therapy) इत्यादि आती हैं। चिकित्सा की रीतियाँ और प्राविधिकीचिकित्सा की सभी क्रियाओं के आठ विभाग किए जा सकते हैं : प्राथमिक कृत्यइसमें तात्कालिक या स्थितिक निदान, प्राथमिक उपचार, चिकित्सा-क्षेत्र-निर्धारण, छुतहे रोगियों का पृथक्करण इत्यादि हैं। अस्पतालीकरणइसमें घातक तथा कठिन रोगों के रोगियों को उचित स्थान में रखकर जीवनरक्षा के आवश्यक उपायों के प्रयोग, नियमित पर्यवेक्षण तथा प्रयोग और यंत्रों की सहायता से निदान का प्रबंध किया जाता है। रोगियों का अस्पतालीकरण उनके घर पर भी होता है। विसंक्रमणसभी प्रकार की शल्यक्रियाओं, इंजेक्शनों तथा प्रसव कार्यों के पूर्व चिकित्सकों की त्वचा तथा हाथों को रोगाणुविहीन बनाया जाता है। कटे हुए स्थानों में श्वास तथा स्पर्श से रोगाणुओं की पहुँच रोकने के लिये शल्यकारों का विशेष पहनावा, दस्ताने इत्यादि पहनना आवश्यक होता है। लोकस्वास्थय के हितकारी उपचारों में भी विविध प्रकार के विसंक्रमणों का बहुत महत्व है। भेषजसेवनशीघ्र प्रभाव के लिये विभिन्न स्थितियों में ओषधियों का उचित मात्रा में तथा उचित रीति से सेवन कराया जाता है। सेवन की सात प्रचलित रीतियाँ हैं : आंत्रेतर (Parenteral) इंजेक्शन, मुख, प्राकृतिक गुहाओं, श्वसनमार्ग तथा त्वचा द्वारा और किरणों तथा विकिरण से। यांत्रिक भेषजसेवन छ: प्रकार के होते हैं : अधिचर्मीय, अंत:चर्मीय, अधस्त्वकीय, शिरामार्गीय, मांसमार्गीय तथा अंतरंगगत। इनमें से शिरामार्गीय और अंतरंगगत रीतियाँ बहुत निकट हैं तथा असाधारण स्थितियों में प्रयुक्त होती हैं। शस्त्रोपचार तथा हस्तकौशलइनके प्रयोग रुग्ण अंगों को काटकर निकालने अथवा कुरूपता को सुधारने इत्यादि में शल्यकारों द्वारा तथा प्रसवकार्यों में इसके विज्ञों द्वारा किए जाते हैं। आरोग्यांकनचिकित्साधीन रोगियों की साधारण रीति से, अथवा यंत्रों या प्रयोगशाला की सहायता से, जाँच कर उनकी अवस्था का पता लगाते रहना चिकित्सा का महत्वपूर्ण अंग है। पुनर्वासननिरोग हुए, किंतु सीमित सामर्थ्यवाले लोगों एवं विकलांगों के लिये भविष्य में स्वास्थ्यपूर्ण जीवनयापन के उपाय निश्चित करना भी चिकित्सा का आवश्यक अंग है। चिकित्सोपरांत संपर्कस्थापनआधुनिक स्तर की पूर्ण चिकित्सा में नीरोग हुए मनुष्य से संपर्क रख, उसकी अवस्था की जानकारी रखना तथा आवश्यक सावधानी के आदेश देना भी संमिलित हैं। विशेषज्ञता और चिकित्सा परिचालनपहले वैद्यक, शल्यकर्म, तथा प्रसूतिविद्या पृथक्-पृथक् थीं। बाद में इन्हें एक साथ सूत्रबद्ध किया गया। किंतु ज्ञान का विस्तार और तकनीकी में आश्चर्यजनक वृद्धि होने के कारण, वर्तमान काल में विशिष्टकरण (स्पेशलाइजेशन) अनिवार्य हो गया। फिर भी संक्रमण तथा विंसक्रमण के विचार, अद्यतन ढंगों से ओषधियों के प्रयोग, विश्राम तथा व्यायाम के प्रयोग, विश्राम तथा व्यायाम के प्रयोग इत्यादि बातें सब रोगों या विकृतियों के उपचार में एक से ही सिद्धांतों पर आधारित हैं। चिकित्सा और प्रकृति की शक्तिरोग दूर करने में प्रकृति की शक्ति ही मुख्य है। हिपाक्रेटीज के काल से आज तक रोगनिवारण के लिये चिकित्सक इसी शक्ति का उपयोग करते आए हैं। वे आधुनिक साधनों का तभी प्रयोग करते हैं, जब वें देखते हैं कि प्रकृति को सहारे या सहायता की आवश्यकता है। भारतमें प्रचलित चिकित्सा पद्धतियाँभारत में इस समय चिकित्सा की चार पद्धतियाँ प्रचलित हैं :
अंग्रेजों के भारत में आगमन के साथ-साथ ऐलोपैथिक पद्धति यहाँ आई और ब्रिटिश राज्यकाल में शासकों से प्रोत्साहन पाने के कारण इसकी जड़ इस देश में जमी और पनपी। आज स्वतंत्र भारत में भी इस पद्धति को मान्यता प्राप्त है और इसके अध्यापन और अन्वेषण के लिये अनेक महाविद्यालय तथा अन्वेण संस्थाएँ खुली हुई हैं। प्रति वर्ष हजारों डाक्टर इन संस्थाओं से निकलकर इस पद्धति द्वारा चिकित्साकार्य करते हैं। देश भर में इस पद्धति से चिकित्सा करने के लिये अस्पताल खुले हुए हैं और उच्च कोटि के चिकित्सक उनमें काम करते हैं। अंग्रेजों के शासनकाल में ही होमियोपैथिक पद्धति इस देश में आई और शासकों से प्रोत्साहन न मिलने के बावजूद भी यह पनपी। इसके अध्यापन के लिये भी आज अनेक संस्थाएँ देश भर में खुल गई हैं और नियमित रूप से उनमें होमियोपैथी का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। अंग्रेजी शासनकाल में यह राजमान्य पद्धति नहीं थी, किंतु अब इसे भी शासकीय मान्यता मिल गई है। आयुर्वैदिक पद्धति भारत की प्राचीन पद्धति है। एक समय यह बहुत उन्नत थी, पर अनेक शताब्दियों से मुसलमानों और ब्रिटिश राज्यकाल में शासकों की ओर से प्रोत्साहन के अभाव में इसकी प्रगति रुक गई और यह पिछड़ गई। पर इसकी जड़ इतनी गहरी है कि आज भी देश के अधिकांश व्यक्तियों की चिकित्सा इसी प्रणाली से होती है। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद आयुर्वेद के अध्ययन में शासन की ओर से कुछ प्रोत्साहन मिल रहा है और वैज्ञानिक आधार पर इसके अध्यापन ओर अन्वेषण के लिये प्रयत्न हो रहे हैं। यूनानी चिकित्सा पद्धति मुसलमानी शासनकाल में आई और कुछ समय तक मुसलमानी राज्यकाल में पनपी, पर ब्रिटिश शासनकाल में प्रोत्साहन के अभाव में यह शिथिल पड़ गई। फिर भी कुछ संस्थाएँ आज भी चल रही हैं, जिनमें यूनानी पद्धति के पठन पाठन का विशेष प्रबंध है। प्राकृतिक एकयुप्रेशर योग बर्तमान में आम जन मानस में जगह बना ली है तथा हर तबके के लोग इसका उपयोग कर रहे हैं. डा0 श्री प्रकाश बरनवाल राष्ट्रीय अध्यक्ष एकयुप्रेशर काउंसिल के संयोजन में एकयुप्रेशर घर घर में सेवा कर रहा है यहाँ तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ट्वीट में एकयुप्रेशर को उपयोगी बताते हुए स्वयं इस्तेमाल की बातें लिखे हैं.
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
सन्दर्भ
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