Share to: share facebook share twitter share wa share telegram print page

 

जगन्नाथदास रत्नाकर

जगन्नाथदास रत्नाकर (१८६६ - २१ जून १९३२) आधुनिक युग के श्रेष्ठ ब्रजभाषा कवि थे।

परिचय

इनका जन्म सं. 1923 (सन्‌ 1866 ई.) के भाद्रपद शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था। भारतेंदु बावू हरिश्चंद्र की भी यही जन्मतिथि थी और वे रत्नाकर जी से 16 वर्ष बड़े थे। उनके पिता का नाम पुरुषोत्तमदास और पितामह का नाम संगमलाल अग्रवाल था जो काशी के धनीमानी व्यक्ति थे। रत्नाकर जी की प्रारंभिक शिक्षा फारसी में हुई। उसके पश्चात्‌ इन्होंने 12 वर्ष की अवस्था में अंग्रेजी पढ़ना प्रारंभ किया और यह प्रतिभाशाली विद्यार्थी सिद्ध हुए। सन 1888 ई. में इन्होंने करना चाहा था, पर पारिवारिक परिस्थितिवश न कर पाए। ये पहले 'ज़की' उपमान से फारसी में रचना करते थे। इनके हिंदी काव्यगुरु सरदार कवि थे। ये मथुरा के प्रसिद्ध कवि 'नवनीत' चतुर्वेदी से भी बड़े प्रभावित हुए थे।

रत्नाकर जी ने अपनी आजीविका के हेतु 30-32 वर्ष की अवस्था में जरदेजी का काम आरंभ किया था। उसके उपरांत ये आवागढ़ रियासत में कोषाध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए। भारतेंदु जी के संपर्क और काशी की कविगोष्ठियों के प्रभाव से इन्होंने 1889 ई. में ब्रजभाषा में रचना करना आरंभ किया। रत्नाकर जी की सर्वप्रथम काव्यकृति 'हिंडोला' सन्‌ 1894 ई. में प्रकाशित हुई। सन्‌ 1893 में 'साहित्य सुधा निधि' नामक मासिक पत्र का संपादन प्रारंभ किया तथा अनेक ग्रंथों का संपादन भी किया जिनमें दूलह कवि कृत कंठाभरण, कृपारामकृत 'हिततरंगिणी', चंद्रशेखरकृत 'नखशिख' हैं। नागरीप्रचारिणी सभा के कार्यों में रत्नाकर जी का पूरा सहयोग रहता था। सन्‌ 1897 में रत्नाकर जी ने 'घनाक्षरी नियम रत्नाकर' प्रकाशित कराया और 1898 में 'समालोचनादर्श' (पोप के 'एस्से ऑन क्रिटिसिज्म' का अनुवाद) प्रकाशित हुआ।

सन्‌ 1902 के उपरांत ये अयोध्यानरेश राजा प्रतापनारायण सिंह के यहाँ प्राइवेट सेक्रेटरी (निजी सचिव) के रूप में काम करते रहे और अंतिम समय तक इनका संबंध अयोध्या दरबार से रहा। इस बीच इन्होंने 'बिहारी रत्नाकर' नाम से बिहारी सतसई का संपादन किया। 14 मई सन्‌ 1921 ई. से अयोध्या की महारानी की प्रेरणा से इन्होंने 'गंगावतरण' काव्य की रचना प्रारंभ की, जो सन्‌ 1923 में समाप्त हुई। इसी समय 'उद्धवशतक' का भी रचनाकार्य चलता रहा। हरिद्वार यात्रा में एक बार इनकी पेटी खो गई जिससे 'उद्धव शतक' के सौ सवा सौ छंद चोरी चले गए। पर रत्नाकर जी ने अपनी स्मृति से उन्हें फिर लिख डाला। 'उद्धव शतक' इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना है। ये सन्‌ 1926 में औरियंटल कांफरेंस के हिंदी विभाग के सभापति हुए और सन्‌ 1930 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के बीसवें अधिवेशन के सभापति चुने गए। इस अधिवेशन का सभापतित्व इन्होंने राजसी ठाटबाट के साथ किया। सन्‌ 1932 ई. की 21 जून को इनका अचानक स्वर्गवास हो गया।

रत्नाकर जी केवल कवि ही नहीं थे, वरन्‌ वे अनेक भाषाओं (संस्कृत, प्राकृत, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी) के ज्ञाता तथा विद्वान्‌ भी थे। उनकी कविप्रतिभा जैसी आश्चर्यकारी थी, वैसी ही किसी छंद की व्याख्या करने की क्षमता भी विलक्षण थी। अनेक विद्वानों ने रत्नाकर जी की टीकाओं की प्रशंसा की है।

रत्नाकर जी का ब्रजभाषा पर अद्भुत अधिकार था और उनकी प्रसिद्ध ब्रजभाषा रचनाओं में सुंदर प्रयोगों एवं ठेठ शब्दावली का व्यवहार हुआ है। रत्नाकर जी स्वच्छ कल्पना के कवि हैं। उसके द्वारा प्रस्तुत दृश्यावली सदैव अनुभूति सनी है और संवेदना को जाग्रत करनेवाली है।

रत्नाकर जी की रचनाएँ

पद्य

हरिश्चंद्र (खंडकाव्य) [1]गंगावतरण 1923 (पुराख्यान काव्य), उद्धवशतक (प्रबंध काव्य), हिंडोला1894 (मुक्तक), कलकाशी (मुक्तक) समालोचनादर्श (पद्यनिबंध) श्रृंगारलहरी, गंगालहरी, विष्णुलहरी (मुक्तक), रत्नाष्टक (मुक्तक), [2]वीराष्टक (मुक्तक), प्रकीर्णक पद्यावली (मुक्तक संग्रह) ।

गद्य

(क) साहित्यिक लेख - रोला छंद के लक्षण, महाकवि बिहारीलाल की जीवनी, बिहारी सतसई संबंधी साहित्य, साहित्यिक ्व्राजभाषा तथा उसके व्याकरण की सामग्री, बिहारी सतसई की टीकाएँ, बिहारी पर स्फुट लेख।

(ख) ऐतिहासिक लेख - महाराज शिवाजी का एक नया पत्र, शुगवंश का एक शिलालेख, एक ऐतिहासिक पापाणाश्व की प्राप्ति, एक प्राचीन मूर्ति, समुद्रगुप्त का पाषाणाश्व, घनाक्षरी निय रत्नाकर, वर्ण, सवैया, छंद आदि।

संपादित रचनाएँ

सुधासागर (प्रथम भाग), कविकुल कंठाभरण, दीपप्रकाश, सुंदरश्रृंगार, नृपशंमुकृत नखशिख, हम्मीर हठ, रसिक विनोद, समस्यापूर्ति (भाग 1), हिततरंगिणी, केशवदासकृत नखशिख, सुजानसागर, बिहारी रत्नाकर, सूरसागर।

काव्यागत विशेषताएँ

वर्ण्य विषय- रत्नाकर जी के काव्य का वर्ण्य विषय भक्ति काल के अनुरूप भक्ति, शृंगार, भ्रमर गीत आदि से संबंधित है और उनके वर्णन करने का ढंग रीति काल के अनुसार है। अतः उनके विषय में यह सत्य ही कहा गया है कि रत्नाकर जी ने भक्तिकाल की आत्मा रीतिकाल के ढाँचे में अवतरित हुई है। रत्नाकर जी का काव्य विषय शुद्ध रूप से पौराणिक है। उन्होंने उद्धवशतक, गंगावतरण, हरिश्चंद्र आदि रचनाओं में पौराणिक कथाओं को ही अपनाया है।

रत्नाकर जी के काव्य में धार्मिक भावना के साथ-साथ राष्ट्रीय भावना भी मिलती है। निम्न पंक्तियों में अंग्रेज़ी शासन की खरी-खोटी सुनाते हुए उन्होंने गांधी जी के ओजस्वी व्यक्तित्व को चित्रित किया है-

कुटिल कुचारी के निगरित मुखारी पर,
वक्र चाहि चक्र चरखे की फाल बाँधी है।
ग्रसित गुरंग ग्राह आरत अथाह परे,
भारत गयंद को गुविंद भयो गांधी है।

भाव चित्रण- रत्नाकर जी भाव-लोक के कुशल चितेरे थे। उन्होंने क्रोध प्रसन्नता, उत्साह शोक, प्रेम घृणा आदि मानवीय व्यापारों के सुंदर चित्र उपस्थित किए हैं।

गोपी-उद्धव-संवाद का एक अंश देखिए-

टूक-टूक ह्वै है मन मुकुर हमारे हाय,
चूँकि हूँ कठोर बैन-पाहन चलावौना।
एक मनमोहन तौ बसि के उजारयौ मोहिं,
हिय में अनेक मन मोहन बसावौ ना।।

बाह्य दृश्य चित्रण- रत्नाकर जी में बाह्य दृश्य चित्रण की अद्भुत क्षमता थी। सुदामा की दीनता पूर्ण चित्र में निम्न पंक्तियों में देखिए-

जै जै महाराज दुजराज दुजराज एक,
सुह्रदय सुदामा राज-द्वार आज आए हैं।
कहैं रतनाकर प्रकट ही दरिद्र रूप
फटही लंगोटी बाँधि बाँध सौं जगाए हैं।।
छीनता की छाप दीनता की छाप धारे देह,
लाठी के सहारे काठी नीठि ठहराए हैं।
संकुचित कंघ पै अघोटी-सी कछौटी लिए,
ता पर सछिद्र छोटी लोटी लटकाए हैं।।

प्रकृति चित्रण- रत्नाकर जी अपने प्रकृति चित्रण में अत्यंत सफल रहे हैं। उनके प्रकृति-चित्रण पर रीति कालीन प्रभाव स्पष्ट रूप से पड़ा है। वर्षा ऋतु का सुंदर चित्रण नीचे की पंक्तियों में देखिए-

छाई सुभ सुबना सुहाई रितु पावस की,
पूरब में पश्चिम में, उत्तर उदीची में।
कहें रत्नाकर कदंब पुल के हैं बन,
लरजै लवग लता ललित बगीची में।।

भाषा- रत्नाकर जी की भाषा शुद्ध ब्रज भाषा है। उन्होंने ब्रज भाषा में परिमार्जन भी किया। उन्होंने भूले हुए मुहावरों को अपनाया, लोकोक्तियों को स्थान दिया और बोल चाल के शब्दों को ग्रहण किया।

रत्नाकर जी की शब्द-योजना पूर्ण निर्दोष है। उन्होंने शब्दों का चयन और परिस्थितियों के अनुकूल ही किया है।

मुहावरों के प्रयोग में रत्नाकर जी अपनी समता नहीं रखते। एक उदाहरण देखिए-

अहह जाति तब मत्सरता अजहूँ न भुलाई।
हेर फेर सौ बेर जदपि मुँह की तुम खाई।

रत्नाकर जी को भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। किंतु इससे उसके सौंदर्य में कोई कमी नहीं होने पाई है। उर्दू-फ़ारसी के विद्वान होते हुए भी रत्नाकर जी ने उर्दू-फ़ारसी के शब्दों के प्रयोग में अत्यंत संयम से काम लिया है। उन्होंने उर्दू-फ़ारसी के केवल उन्हीं शब्दों को अपनाया है जिनसे भाषा की स्वाभाविकता नष्ट नहीं हुई।

संक्षेप में रत्नाकर जी की भाषा संयत, प्रौढ़ और प्रवाह पूर्ण है।

शैली- रत्नाकर जी की शैली रीतिकाल की अलंकृत शैली है। उनकी इस शैली में सूरदास और मीरा की भावुकता, देव की प्रेममयता, बिहारी की कलात्मकता, पद्माकर की प्रभावोत्पादकता और भूषण की ओजस्विता का सुंदर समन्वय है। रत्नाकर जी की शैली में भाव और भाषा का पूर्ण संयोग हैं।

रस- यों रत्नाकर जी के काव्य में सभी रस मिलते हैं, पर शृंगार, करुण वीर और वीभत्स रस के चित्रण में उन्हें विशेष सफलता मिली है।

छंद- रत्नाकर जी ने विविध प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है, किंतु रोला, कवित्त और सवैया छंद उनके विशेष प्रिय छंदों में से हैं।

अलंकार- रत्नाकर जी अपने युग में सर्वाधिक अलंकार प्रिय कवि हैं! उनकी रचना का प्रत्येक छंद अलंकारों की सुषमा से परिपूर्ण है। रत्नाकर जी का सबसे अधिक प्रिय अलंकार साँग रूपक है। इसके अतिरिक्त यमक, श्लेष, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप स्मरण, आदि अलंकार का सौंदर्य भी रत्नाकर जी के काव्य में देखा जा सकता है।

समालोचना

रत्नाकर जी ब्रजभाषा काव्य के अंतिम ऐतिहासिक कवि थे। ब्रजभाषा के आधुनिक काल के कवियों में उनका स्थान अद्वितीय है। उनकी कविता भक्ति काल और रीति काल दोनों का एक-एक साथ प्रतिनिधित्व करती है। उन्होंने प्राचीन काव्य परंपराओं का नवीन दृष्टिकोण से अनुशीलन किया और ब्रजभाषा का संस्कार कर उसे इस योग्य बना दिया कि वह खड़ी बोली के समक्ष अपना माधुर्य व्यक्त करने में समर्थ हो सके। भ्रमर गीत की परंपरा में रत्नाकर जी के 'उद्धव शतक' का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। अपने काव्य गुणों के कारण रत्नाकर जी हिंदी साहित्य में चिर स्मरणीय रहेंगे।

सन्दर्भ

  • रत्नाकर जी की ग्रंथावली नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित;
  • कृष्णशंकर शुक्ल : कविवर रत्नाकर;
  • श्री बनारसीदास: रेखाचित्र;
  • रामचंद्र शुक्ल: हिंदी साहित्य का इतिहास।
  1. pustak.org. "उद्धव शतक - जगन्नाथ दास रत्नाकर Uddhav Shatak". मूल से 1 जुलाई 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 मई 2016.
  2. jainbooksagency. "List of book's titles with their author like 'jagannath ratnakar'". अभिगमन तिथि 29 मई 2016.[मृत कड़ियाँ]

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

Information related to जगन्नाथदास रत्नाकर

Prefix: a b c d e f g h i j k l m n o p q r s t u v w x y z 0 1 2 3 4 5 6 7 8 9

Portal di Ensiklopedia Dunia

Kembali kehalaman sebelumnya