बुंदेली भारत के एक विशेष क्षेत्र बुन्देलखण्ड में बोली जाती है[1]। यह कहना बहुत कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं जो सदियों से आज तक प्रयोग में आ रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बंग्ला तथा मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं।
बुन्देली भाषा का क्षेत्र
प्राचीन काल में बुंदेली में शासकीय पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख प्रचुर मात्रा में मिलते है। कहा तो यह भी जाता है कि औरंगजेब और शिवाजी भी क्षेत्र के हिंदू राजाओं से बुंदेली में ही पत्र व्यवहार करते थे। एक-एक क्षण के लिए अलग-अलग शब्द हैं। गीतो में प्रकृति के वर्णन के लिए, अकेली संध्या के लिए बुंदेली में इक्कीस शब्द हैं। बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है और नरसिंहपुर की मधुरता भी है।[2]
बुंदेलखंड के कुछ क्षेत्र
गाडरवारा
सागर
दमोह
विदिशा
छतरपुर
टीकमगढ़
ग्वालियर
भिंड
मुरैना
दतिया
जबलपुर
जालौन
होशंगाबाद
कटनी
बांदा
झांसी
महोबा
पन्ना
हमीरपुर
चित्रकूट
ललितपुर(बानपुर)
नरसिंहपुर
सिवनी
रायसेन
बुंदेली में लोकगीत
बुंदेली का इतिहास
वर्तमान बुंदेलखंड चेदि, दशार्ण एवं कारुष से जुड़ा था। यहां पर अनेक जनजातियां निवास करती थीं। इनमें कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी, जो विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में इस बोली का उल्लेख प्राप्त है। शबर, भील, चांडाल, सजर, द्रविड़ोद्भवा, हीना वने वारणम् व विभाषा नाटकम् स्मृतम् से बनाफरी का अभिप्रेत है। संस्कृत भाषा से प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का विकास हुआ। इनमें देशज शब्दों की बहुलता थी। हेमचंद्र सूरि ने पामरजनों में प्रचलित प्राकृत अपभ्रंश का व्याकरण दशवी शती में लिखा। मध्यदेशीय भाषा का विकास इस काल में हो रहा था। हेमचन्द्र के कोश में विंध्येली के अनेक शब्दों के निघण्टु प्राप्त हैं।
बारहवीं सदी में दामोदर पंडित ने 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' की रचना की। इसमें पुरानी अवधी तथा शौरसेनी ब्रज के अनेक शब्दों का उल्लेख मिलता है। इसी काल में (अर्थात एक हजार ईस्वी में) बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं। इसमें देशज शब्दों की बहुलता थी। किशोरीदास वाजपेयी लिखित हिंदी शब्दानुशासन के अनुसार हिन्दी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है। बुंदेली की माता प्राकृत शौरसेनी तथा पिता संस्कृत भाषा है। दोनों भाषाओं में जन्मने के उपरांत भी बुंदेली भाषा की अपनी चाल, अपनी प्रकृति तथा वाक्य विन्यास को अपनी मौलिक शैली है। हिंदी प्राकृत की अपेक्षा संस्कृत के निकट है।
मध्यदेशीय भाषा का प्रभुत्व अविच्छन्न रूप से ईसा की प्रथम सहस्त्राब्दी के सारे काल में और इसके पूर्व कायम रहा। नाथ तथा नाग पंथों के सिद्धों ने जिस भाषा का प्रयोग किया, उसके स्वरुप अलग-अलग जनपदों में भिन्न भिन्न थे। वह देशज प्रधान लोकभाषा थी। इसके पूर्व भी भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणजनों की भाषा विंध्येली प्राचीन बुंदेली ही थी। संभवतः चंदेल नरेश गंडदेव (सन् ९४० से ९९९ ई.) तथा उसके उत्तराधिकारी विद्याधर (९९९ ई. से १०२५ ई.) के काल में बुंदेली के प्रारंभिक रूप में महमूद गजनवी की प्रशंसा की कतिपय पंक्तियां लिखी गई। इसका विकास रासो काव्य धारा के माध्यम से हुआ। जगनिक का आल्हखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचनाएं हैं। बुंदेली के आदि कवि के रूप में प्राप्त सामग्री के आधार पर जगनिक एवं विष्णुदास सर्वमान्य हैं, जो बुंदेली की समस्त विशेषताओं से मंडित हैं।
बुंदेली के बारे में कहा गया है:
बुंदेली वा या है जौन में बुंदेलखंड के कवियों ने अपनी कविता लिखी, बारता लिखवे वारों ने वारता (गद्य) लिखी. जा भाषा पूरे बुंदेलखंड में एकई रूप में मिलत आय। बोली के कई रूप जगा के हिसाब से बदलत जात हैं। जई से कही गई है कि कोस-कोस पे बदले पानी, गांव-गांव में बानी. बुंदेलखंड में जा हिसाब से बहुत सी बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी पवारी, विदीशयीया (विदिशा जिला में बोली जाने वाली) आदि।
बुंदेली का स्वरूप
बुंदेलखंड की पाटी पद्धति में सात स्वर तथा ४५ व्यंजन हैं। कातन्त्र व्याकरण ने संस्कृत के सरलीकरण प्रक्रिया में सहयोग दिया। बुंदेली पाटी की शुरुआत ओना मासी घ मौखिक पाठ से प्रारंभ हुई। विदुर नीति के श्लोक विन्नायके तथा चाणक्य नीति चन्नायके के रूप में याद कराए जाते थे। वणिक प्रिया के गणित के सूत्र रटाए जाते थे। नमः सिद्ध मने ने श्री गणेशाय नमः का स्थान ले लिया। कायस्थों तथा वैश्यों ने इस भाषा को व्यवहारिक स्वरुप प्रदान किया, उनकी लिपि मुड़िया निम्न मात्रा विहीन थी। स्वर बैया से अक्षर तथा मात्रा ज्ञान कराया गया। चली चली बिजन वखों आई, कां से आई का का ल्याई ... वाक्य विन्यास मौलिक थे। प्राचीन बुंदेली विंध्येली के कलापी सूत्र काल्पी में प्राप्त हुए हैं।
कुछ प्रसिद्ध शब्द और कहावतें
लत्ता=कपड़े
अबई-अबई = अभी-अभी
भुन्सारो- सबेरा
संजा- शाम
उमदा-अच्छा
काय-क्यों
का-क्या
हओ-हां
पुसात-पसंद आता है।
हुईये-होगा
आंहां- नहीं
चुचावौ- गीली वस्तु से जल टपकना
निपोर- खराब
मराज- महाराज
खौं- को
इखों-इसको
उखों-उसको
इको-इसका
अपनोंरें-हम सब
हमोरे-हम सब (जब किसी दूसरे व्यक्ति से बोल रहे हों)
रींछ-भालू
लडैया-भेडिया
मंदर-मंदिर
जमाने भर के-दुनिया भर के
उलांयते़-जल्दी
पढा - भैंस का बच्चा
भैंसिया - भैंस
सुआ - तोता
हरैं- संघ
तोसे-तुमसे
मोसे-मुझसे
किते - कहां
एते आ - यहां आ
नें करो- मत करो
करियो- करना (तुम वह आप के उच्चारण में)
नॉन - नमक
नेक - कम
बिलात - ज्यादा
कछु बोलो - कुछ कहो
लुअर - अंगारे
निंगवौ- चलवौ
परे- लेटे
करिआ- काला
घाम- धूप
मोड़ा/मोड़ी - लड़का/लड़की
हमाओ - हमारा
करिये- करना (तू के उच्चारण में)
तैं-तू
हम-मैं
जेहें-जायेंगे/जायेंगी
जेहे-जायेगा/जायेंगी
नें-नहीं व मत के उच्चारण में
खीब-खूब
चीनवो-पहचानना
ररो/मुलक/मुझको/वेंजा-बहुत
बैरौ- बहरा
पटा- पटिया
राच्छस- राक्षस
घांई- जैसे
टाठी-थाली
चीनवो-जानना
लगां/लिंगा-पास में
नो/लों-तक
हे-को
आय-है
हैगो/हैगी-है
हमाओ/हमरो-मेरा
हमायी/हमरी-मेरी
हमाये/हमरे-मेरे
मम्मा- मामा
भानिज- भान्जा
कक्का- चाचा
काकी- चाची
तला- तालाब
उंगरकटा - एक प्रकार का कीड़ा
द्योता- देवता
किते, कहाँ
इते, यहाँ
सई, सच
सपन्ना, स्नानघर
कुलुप- ताला
ऊलना- कूदना/उछलना
भजना- भागना
सपरवौ- स्नान करना
मौंगे- शांत
भटा- बैंगन
कलींदरौ- तरबूज
कुम्हड़ौ- कद्दू
भींटी- दीवार
सुंगरिआ- मादा सुअर
आंन्दरे- अंधे
ऊपर दिए गए शब्दों में 40% शब्द मराठी में आज इस्तेमाल होते हैं। अतः बुन्देली और मराठी का रिश्ता हिंदी से भी ज्यादा जुड़वा है।
बुन्देली लोकोक्तियाँ और कहावतें
अंदरा की सूद
अपनी इज्जत अपने हाथ
अक्कल के पाछें लट्ठ लयें फिरत
अक्कल को अजीरन
अकेलो चना भार नईं फोरत
अकौआ से हाती नईं बंदत
अगह्न दार को अदहन
अगारी तुमाई, पछारी हमाई
इतै कौन तुमाई जमा गड़ी
इनईं आँखन बसकारो काटो?
इमली के पत्ता पपे कुलांट खाओ
ईंगुर हो रही
उंगरिया पकर के कौंचा पकरबो
उखरी में मूंड़ दओ, तो मूसरन को का डर
उठाई जीव तरुवा से दै मारी
उड़त चिरैंया परखत
उड़ो चून पुरखन के नाव
उजार चरें और प्यांर खायें
उनकी पईं काऊ ने नईं खायीं
उन बिगर कौन मॅंड़वा अटको
उल्टी आंतें गरे परीं
ऊंची दुकान फीको पकवान
ऊंटन खेती नईं होत
ऊंट पे चढ़के सबै मलक आउत
ऊटपटांग हांकबो
एक कओ न दो सुनो
एक म्यांन में दो तलवारें नईं रतीं
ऐसे जीबे से तो मरबो भलो
ऐसे होते कंत तौ काय कों जाते अंत
ओंधे मो डरे
ओई पातर में खायें, ओई में धेद करें
ओंगन बिना गाड़ी नईं ढ़ंड़कत
कंडी कंडी जोरें बिटा जुरत
कतन्नी सी जीव चलत
कयें खेत की सुने खरयान की
करिया अक्षर भैंस बराबर
कयें कयें धोबी गदा पै नईं चढ़त
करता से कर्तार हारो
करम छिपें ना भभूत रमायें
करें न धरें, सनीचर लगो
करेला और नीम चढो
का खांड़ के घुल्ला हो, जो कोऊ घोर कें पीले
काजर लगाउतन आँख फूटी
कान में ठेंठा लगा लये
कुंअन में बांस डारबो
कुंआ बावरी नाकत फिरत
कोऊ को घर जरे, कोऊ तापे
कोऊ मताई के पेट सें सीख कें नईं आऊत
कोरे के कोरे रे गये
कौन इतै तुमाओ नरा गड़ो
खता मिट जात पै गूद बनी रत
खाईं गकरियां, गाये गीत, जे चले चेतुआ मीत
खेत के बिजूका
गंगा नहाबो
गरीब की लुगाई, सबकी भौजाई
गांव को जोगी जोगिया, आनगांव को सिद्ध
गोऊंअन के संगे घुन पिस जात
गोली सें बचे, पै बोली से ना बचे
घरई की अछरू माता, घरई के पंडा
घरई की कुरैया से आँख फूटत
घर के खपरा बिक जेयें
घर को परसइया, अंधियारी रात
घर को भूत, सात पैरी के नाम जानत
घर घर मटया चूले हैं
घी देतन वामन नर्रयात
घोड़न को चारो, गदन कों नईं डारो जात
चतुर चार जगां से ठगाय जात
कौआ के कोसें ढ़ोर नहिं मरत
चलत बैल खों अरई गुच्चत
चित्त तुमाई, पट्ट तुमाई
चोंटिया लेओ न बकटो भराओ
छाती पै पथरा धरो
छाती पै होरा भूंजत
छिंगुरी पकर कें कोंचा पकरबो
छै महीनों को सकारो करत
जगन्नाथ को भात, जगत पसारें हाथ
जनम के आंदरे, नाव नैनसुख
जब की तब सें लगी
जब से जानी, तब सें मानी
जा कान सुनी, बा कान निकार दई
जाके पांव ना फटी बिम्बाई, सो का जाने पीर पराई
जान समझ के कुआ में ढ़केल दओ
जित्ते मों उत्ती बातें
जित्तो खात. उत्तई ललात
जित्तो छोटो, उत्तई खोटो
जैसो देस, तैसो भेष
जैसो नचाओ, तैसो नचने
जो गैल बताये सो आंगे होय
जोलों सांस, तौलों आस
झरे में कूरा फैलाबो
टंटो मोल ले लओ
टका सी सुनावो
टांय टांय फिस्स
ठांडो बैल, खूंदे सार
ढ़ोर से नर्रयात
तपा तप रये
तरे के दांत तरें, और ऊपर के ऊपर रै गये
तला में रै कें मगर सों बैर
तिल को ताड़ बनाबो
तीन में न तेरा में, मृदंग बजाबें डेरा में
तुम जानो तुमाओ काम जाने
तुम हमाई न कओ, हम तुमाई न कयें
तुमाओ मो नहिं बसात
तुमाओ ईमान तुमाय संगे
तुमाये मों में घी शक्कर
तेली को बैल बना रखो
थूंक कैं चाटत
दबो बानिया देय उधार
दांत काटी रोटी
दांतन पसीना आजे
दान की बछिया के दांत नहीं देखे जात
धरम के दूने
नान सें पेट नहीं छिपत
नाम बड़े और दरसन थोरे
निबुआ, नोंन चुखा दओ
नौ खायें तेरा की भूंक
नौ नगद ना तेरा उधार
पके पे निबौरी मिठात
पड़े लिखे मूसर
पथरा तरें हाथ दबो
पथरा से मूंड़ मारबो
पराई आँखन देखबो
पांव में भौंरी है
पांव में मांदी रचायें
पानी में आग लगाबो
पिंजरा के पंछी नाईं फरफरा रये
पुराने चांवर आयें
पेट में लात मारबो
बऊ शरम की बिटिया करम की
बचन खुचन को सीताराम
बड़ी नाक बारे बने फिरत
बातन फूल झरत
मरका बैल भलो कै सूनी सार
मन मन भावे, मूंड़ हिलाबे
मनायें मनायें खीर ना खायें जूठी पातर चांटन जायें
मांगे को मठा मौल बराबर
मीठी मीठी बातन पेट नहीं भरत
मूंछन पै ताव दैवो
मौ देखो व्यवहार
रंग में भंग
रात थोरी, स्वांग भौत
लंका जीत आये
लम्पा से ऐंठत
लपसी सी चांटत
लरका के भाग्यन लरकोरी जियत
लाख कई पर एक नईं मानी
सइयां भये कोतबाल अब डर काहे को
सकरे में सम्धियानो
समय देख कें बात करें चइये
सोउत बर्रे जगाउत
सौ ड़ंडी एक बुंदेलखण्डी
सौ सुनार की एक लुहार की
हम का गदा चराउत रय
हरो हरो सूजत
हांसी की सांसी
हात पै हात धरें बैठे
हात हलाउत चले आये
होनहार विरबान के होत चीकने पात
हुइये बही जो राम रूचि राखा
जान दे बल्ली खिच के, अब मची परपर
क्षेत्रीय बुंदेलखंडी
जो बोली पन्ना, सागर, झांसी आदि में बोली जाती है वो 'ठेठ' तथा जो विदिशा, रायसेन, होशंगाबाद में बोली जाती है 'क्षेत्रीय बुन्देलखंडी' कहलाती है।
बुंदेलखंड के उत्तरप्रदेश स्थित जिलों में भी बुंदेली भाषा में शब्द वैविध्य है। जनपद जालौन की बुंदेली हिंदी की खड़ी बोली के अधिक निकट है। प्रायः बातचीत में अधिकांश शब्द खड़ी बोली के मिलेंगे, जबकि झांसी जनपद के ग्रामीण क्षेत्र की बोली पर मध्यप्रदेश की सीमा होने के कारण वहां का प्रभाव है। ऐसा ही ललितपुर की बोली में भी है।[1]
वहीं हमीरपुर, बांदा और चित्रकूट की बुंदेली कुछ अलग है। पहले-पहल सुनने पर आपको कुछ कठोर लग सकती है, किन्तु वह उनके बोलने का तरीका है। जैसे कि ग्वालियर-मुरैना क्षेत्र की बोली में कुछ कर्कशता लगती है, जो वास्तव में होती नहीं है।