भारत का भूगोल
भारत का भूगोल या भारत का भौगोलिक स्वरूप से आशय भारत में भौगोलिक तत्वों के वितरण और इसके प्रतिरूप से है जो लगभग हर दृष्टि से काफ़ी विविधतापूर्ण है। दक्षिण एशिया के तीन प्रायद्वीपों में से मध्यवर्ती प्रायद्वीप पर स्थित यह देश अपने 32,87,263 वर्ग किमी क्षेत्रफल के साथ विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा देश है। साथ ही लगभग 1.4 अरब जनसंख्या के साथ यह पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश भी है। भारत की भौगोलिक संरचना में लगभग सभी प्रकार के स्थलरूप पाए जाते हैं। एक ओर इसके उत्तर में विशाल हिमालय की पर्वतमालायें हैं तो दूसरी ओर और दक्षिण में विस्तृत हिंद महासागर, एक ओर ऊँचा-नीचा और कटा-फटा दक्कन का पठार है तो वहीं विशाल और समतल सिन्धु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान भी, थार के विस्तृत मरुस्थल में जहाँ विविध मरुस्थलीय स्थलरुप पाए जाते हैं तो दूसरी ओर समुद्र तटीय भाग भी हैं। कर्क रेखा इसके लगभग बीच से गुजरती है और यहाँ लगभग हर प्रकार की जलवायु भी पायी जाती है। मिट्टी, वनस्पति और प्राकृतिक संसाधनो की दृष्टि से भी भारत में काफ़ी भौगोलिक विविधता है। प्राकृतिक विविधता ने यहाँ की नृजातीय विविधता और जनसंख्या के असमान वितरण के साथ मिलकर इसे आर्थिक, सामजिक और सांस्कृतिक विविधता प्रदान की है। इन सबके बावजूद यहाँ की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक एकता इसे एक राष्ट्र के रूप में परिभाषित करती है। हिमालय द्वारा उत्तर में सुरक्षित और लगभग ७ हज़ार किलोमीटर लम्बी समुद्री सीमा के साथ हिन्द महासागर के उत्तरी शीर्ष पर स्थित भारत का भू-राजनैतिक महत्त्व भी बहुत बढ़ जाता है और इसे एक प्रमुख क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित करता है। अवस्थिति एवं विस्तारभारत की निरपेक्ष अवस्थिति 8° 4' उ. से 37° 6' उ. अक्षांश तक और 68° 7' पू. से 97° 25' पू. देशान्तर के मध्य है। इसकी उत्तर से दक्षिण लम्बाई 3214 किमी और पूर्व से पश्चिम चौड़ाई 2933 किमी है। इसकी स्थलीय सीमा की लम्बाई 15200 किमी तथा समुद्र तट की लम्बाई 7517 किमी है। कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किमी है। भारत की स्थलीय सीमा उत्तर-पश्चिमी में पाकिस्तान और अफगानिस्तान से लगती है, उत्तर में तिब्बत (अब चीन का हिस्सा) और चीन तथा नेपाल और भूटान से लगी हुई है और पूर्व में बांग्लादेश तथा म्यांमार से। बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह और अरब सागर में स्थित लक्षद्वीप, भारत के द्वीपीय हिस्से हैं। इस प्रकार भारत की समुद्री सीमा दक्षिण-पश्चिम में मालदीव दक्षिण में श्री लंका और सुदूर दक्षिण-पूर्व में थाइलैंड और इंडोनेशिया से लगती है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार के साथ भारत की स्थलीय सीमा और समुद्री सीमा दोनों जुड़ी हैं। भारत का सबसे उत्तरी बिंदु इंदिरा कॉल और सबसे दक्षिणी बिंदु इंदिरा प्वाइंट तथा सबसे पूर्वी बिंदु किबिथू और सबसे पश्चिमी बिंदु सिर्क्रिक(गुजरात) है। मुख्य भूमि का सबसे दक्षिणी बिंदु कन्याकुमारी है। उत्तरतम बिंदु इंदिरा कॉल का नामकरण इसके खोजी बुलक वर्कमैन ने १९१२ में भारतीय देवी लक्ष्मी के एक नाम इंदिरा के आधार किया और इसका इंदिरा गाँधी से कोई संबंध नहीं है। प्रशासनिक इकाइयाँवर्तमान में भारत 28 राज्यों तथा 8 केन्द्रशासित प्रदेशों में बँटा हुआ है। राज्यों की चुनी हुई स्वतंत्र सरकारें हैं, जबकि केन्द्रशासित प्रदेशों पर केन्द्र द्वारा नियुक्त प्रबंधन शासन करता है, हालाँकि पॉण्डिचेरी और दिल्ली की लोकतांत्रिक सरकार भी हैं। अन्टार्कटिका में दक्षिण गंगोत्री और मैत्री पर भी भारत के वैज्ञानिक-स्थल हैं, यद्यपि अभी तक कोई वास्तविक आधिपत्य स्थापित नहीं किया गया है।
भूगर्भशास्त्रीय पहलूभारत पूरी तौर पर भारतीय प्लेट के ऊपर स्थित है जो भारतीय आस्ट्रेलियाई प्लेट (Indo-Australian Plate) का उपखण्ड है। प्राचीन काल में यह प्लेट गोंडवानालैण्ड का हिस्सा थी और अफ्रीका और अंटार्कटिका के साथ जुड़ी हुई थी। तकरीबन 9 करोड़ वर्ष पहले क्रीटेशियस काल में यह प्लेट 15 से॰मी॰/वर्ष की गति से उत्तर की ओर बढ़ने लगी और इओसीन पीरियड में यूरेशियन प्लेट से टकराई। भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के मध्य स्थित टेथीज भूसन्नति के अवसादों के वालन द्वारा ऊपर उठने से तिब्बत पठार और हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। सामने की द्रोणी में बाद में अवसाद जमा हो जाने से सिन्धु-गंगा मैदान बना। भारतीय प्लेट अभी भी लगभग ५ से॰मी॰/वर्ष की गति से उत्तर की ओर गतिशिईल है और हिमालय की ऊँचाई में अभी भी २ मि॰मी॰/वर्ष कि गति से उत्थान हो रहा है। प्रायद्वीपीय पठार भारत का प्राचीनतम दृढ़ भूखंड है। इसका निर्माण भूवैज्ञानिक इतिहास के प्रारंभ काल में हुआ था जिसे आर्कियन महाकल्प या आद्यमहाकल्प कहते हैं। तब से यह बराबर समुद्र के ऊपर रहा। यह मुख्य ग्रेनाइट, नीस और शिस्ट नामक चट्टानों से बना है। परतदार चट्टानें भी अत्यंत पुरानी हैं। अरावली पर्वत प्राचीनतम वलित पर्वत है। पूर्वी घाट प्राचीन वलित तथा पश्चिमी घाट अवशिष्ट पहाड़ों के उदाहरण हैं। दक्षिणी प्रायद्वीप में जो भी भुसंचलन के प्रमाण मिलते हैं वे केवल लंबवत् संचलन के हैं जिससे दरारों अथवा भ्रंशों का निर्माण हुआ। इस प्रकार का पहला संचलन मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic Era) अथवा गोंडवाना काल में हुआ। समांतर भ्रंशों के बीच की भूमि नीचे धँस गई और उन धँसे भागों में अनुप्रस्थ परतदार चट्टानों को गोंडवान क्रम की चट्टानों में मिलता है। इनका विस्तार, दामोदर, महानदी तथा गोदावरी नदियों की घाटियों में लंबे एवं सकीर्ण क्षेत्रों में पाया जाता है। मध्यजीवी महाकल्प के अंतिम काल में लंबी दरारों से लावा निकल कर प्रायद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भागों के विस्तृत क्षेत्र में फैल गया। दक्कन का यह लावा क्षेत्र अब भी लगभग दो लाख वर्ग मील में फैला हुआ पाया जाता है। इस क्षेत्र की चट्टान बेसाल्ट है जिसके विखंडन से काली मिट्टी का निर्माण हुआ है। अत्यंत प्राचीन काल से स्थिर एवं स्थल भाग रहने के कारण दक्षिणी प्रायद्वीप में अनाच्छादन की शक्तियां निरंतर काम करती रही हैं जिसके फलस्वरूप इसका अधिकांश भाग घर्षित हो गया है, अंदर की पुरानी चट्टानें धरातल पर आ गई हैं। हिमालय का पर्वतीय भाग अधिकांशतः नवीन परतदार चट्टानों द्वारा निर्मित है, जो लाखों वर्षो तक टेथिस समुद्र में एकत्र होती रही थीं। सागर में एकत्र मलबे ने तृतीय महाकल्प में भूसंचलन के कारण विशाल मोड़दार श्रेणियों का रूप धारण किया। इस प्रकार हिमालय पर्वतमाला मुख्यत: वैसी चट्टानों से निर्मित है जो समुद्री निक्षेप से बनी हैं और दक्षिणी पठार की तुलना में यह एक अस्थिर स्थल है। परतदार चट्टानें जो क्षैतिज अवस्था में जमा हुई थीं, भूसंचलन के प्रभाव से अत्यंत मुड़ गई हैं और एक दूसरे पर चढ़ गई हैं। विशाल क्षेत्रों में वलन (folds), भ्रंश (faults), क्षेप-भ्रंश (thrust faults) तथा शयान वलन (recumbent folding) के उदाहरण मिलते हैं। सिन्धु-गंगा मैदान भूवैज्ञानिक दृष्टि से सबसे नवीन है। हिमालय पर्वतमाला के निर्माण के समय उत्तर से जो भूसंचलन आया उसके धक्के से प्रायद्वीप का उत्तरी किनारा नीचे धँस गया जिससे विशाल खड्ड बन गया। हिमालय पर्वत से निकलनेवाली नदियों ने अपने निक्षेपों द्वारा इस खड्ड को भरना शुरू किया और इस प्रकार उन्होंने कालांतर में एक विस्तृत मैदान का निर्माण किया। इस प्रकार यह मैदान मुख्यत: हिमालय के अपक्षरण से उत्पन्न तलछट और नदियों द्वारा जमा किए हुए जलोढक से बना है। इसमें बालू तथा मिट्टी की तहें मिलती हैं, जो अत्यंतनूतन (Pleistocene) और नवीनतम काल की हैं। भारत के भौतिक प्रदेशHindiभारत के उत्तर में हिमालय की पर्वतमाला नए और मोड़दार पहाड़ों से बनी है। यह पर्वतश्रेणी कश्मीर से अरुणाचल तक लगभग १,५०० मील तक फैली हुई है। इसकी चौड़ाई १५० से २०० मील तक है। यह संसार की सबसे ऊँची पर्वतमाला है और इसमें अनेक चोटियाँ २४,००० फुट से अधिक ऊँची हैं। हिमालय की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट है जिसकी ऊँचाई २९,०२८ फुट है जो नेपाल में स्थित है। अन्य मुख्य चोटियाँ कंचनजंगा (२७,८१५ फुट), धौलागिरि (२६,७९५ फुट), नंगा पर्वत (२६,६२० फुट), गोसाईथान (२६,२९१ फुट), नंदादेवी (२५,६४५ फुट) इत्यादि हैं। गॉडविन ऑस्टिन (माउंट के २) जो २८,२५० फुट ऊँची है, हिमालय का नहीं, बल्कि कश्मीर के कराकोरम पर्वत का एक शिखर है। हिमालय प्रदेश में १६,००० फुट से अधिक ऊँचाई पर हमेशा बर्फ जमी रहती है। इसलिए इस पर्वतमाला को हिमालय कहना सर्वथा उपयुक्त है। हिमालय के अधिकतर भागों में तीन समांतर श्रेणियाँ मिलती हैं:
पूर्व में भारत और बर्मा के बीच के पहाड़ भिन्न भिन्न नामों से ख्यात हैं। उत्तर में यह पटकई बुम की पहाड़ी कहलाती है। नागा पर्वत से एक शाखा पश्चिम की ओर असम में चली गई हैं जिसमें खासी और गारो की पहाड़ियाँ है। इन पहाड़ों की औसत ऊँचाई ६,००० फुट है और अधिक वर्षा के कारण ये घने जंगलों से आच्छादित हैं। हिमालय की ऊँची पर्वतमाला को कुछ ही स्थानों पर, जहाँ दर्रे हैं, पार किया जा सकता है। इसलिए इन दर्रो का बड़ा महत्त्व है। उत्तर-पश्चिम में खैबर और बोलन के दर्रे हैं जो अब पाकिस्तान में हैं। उत्तर में रावलपिंडी से कश्मीर जाने का रास्ता है जो अब पाकिस्तान के अधिकार में है। भारत ने एक नया रास्ता पठानकोट से बनिहाल दर्रा होकर श्रीनगर जाने के लिए बनाया है। श्रीनगर से जोजी ला दर्रे द्वारा लेह तक जाने का रास्ता है। हिमालय प्रदेश से तिब्बत जाने के लिए शिपकी ला दर्रा है जो शिमला के पास है। फिर पूर्व में दार्जिलिंग का दर्रा है, जहाँ से चुंबी घाटी होते हुए तिब्बत की राजधानी लासा तक जाने का रास्ता है। पूर्व की पहाड़ियों में भी कई दर्रे हैं जिनसे होकर बर्मा जाया जा सकता है। इनमें मुख्य मनीपुर तथा हुकौंग घाटी के दर्रे हैं। सिन्धु-गंगा मैदानहिमालय के दक्षिण में एक विस्तृत समतल मैदान है जो लगभग सारे उत्तर भारत में फैला हुआ है। यह गंगा, ब्रह्मपुत्र तथा सिंधु और उनकी सहायक नदियों द्वारा बना है। यह मैदान गंगा सिंधु के मैदान के नाम से जाना जाता है। इसका अधिकतर भाग गंगा, नदी के क्षेत्र में पड़ता है। सिंधु और उसकी सहायक नदियों के मैदान का आधे से अधिक भाग अब पाकिस्तान में पड़ता है और भारत में सतलुज, रावी और व्यास का ही मैदान रह गया है। इसी प्रकार पूर्व में, गंगा नदी के डेल्टा का अधिकांश भाग बांग्लादेश में पड़ता है। उत्तर का यह विशाल मैदान पूर्व से पश्चिम, भारत की सीमा के अंदर लगभग १,५०० मील लंबा है। इसकी चौड़ाई १५० से २०० मील तक है। इस मैदान में कहीं कोई पहाड़ नहीं है। भूमि समतल है और समुद्र की सतह से धीरे धीरे पश्चिम की ओर उठती गई। कहीं भी यह ६०० फुट से अधिक ऊँचा नहीं है। दिल्ली, जो गंगा और सिंधु के मैदानों के बीच अपेक्षाकृत ऊँची भूमि पर स्थित है, केवल ७०० फुट ऊँची भूमि पर स्थित है। अत्यंत चौरस होने के कारण इसकी धरातलीय आकृति में एकरूपता का अनुभव होता है, किंतु वास्तव में कुछ महत्वपूर्ण अंतर पाए जाते हैं। हिमालय (शिवालिक) की तलहटी में जहाँ नदियाँ पर्वतीय क्षेत्र को छोड़कर मैदान में प्रवेश करती हैं, एक संकीर्ण पेटी में कंकड पत्थर मिश्रित निक्षेप पाया जाता है जिसमें नदियाँ अंतर्धान हो जाती हैं। इस ढलुवाँ क्षेत्र को भाबर कहते हैं। भाबर के दक्षिण में तराई प्रदेश है, जहाँ विलुप्त नदियाँ पुन: प्रकट हो जाती हैं। यह क्षेत्र दलदलों और जंगलों से भरा है। इसका निक्षेप भाभर की तुलना में अधिक महीन कणों का है। भाभर की अपेक्षा यह अधिक समतल भी है। कभी कहीं जंगलों को साफ कर इसमें खेती की जाती है। तराई के दक्षिण में जलोढ़ मैदान पाया जाता है। मैदान में जलोढ़क दो किस्म के हैं, पुराना जलोढ़क और नवीन जलोढ़क। पुराने जलोढ़क को बाँगर कहते हैं। यह अपेक्षाकृत ऊँची भूमि में पाया जाता है, जहाँ नदियों की बाढ़ का जल नहीं पहुँच पाता। इसमें कहीं कहीं चूने के कंकड मिलते हैं। नवीन जलोढ़क को खादर कहते हैं। यह नदियों की बाढ़ के मैदान तथा डेल्टा प्रदेश में पाया जाता है, जहाँ नदियाँ प्रति वर्ष नई तलछट जमा करती हैं। मैदान के दक्षिणी भाग में कहीं कहीं दक्षिणी पठार से निकली हुई छोटी मोटी पहाड़ियाँ मिलती हैं। इसके उदाहरण बिहार में गया तथा राजगिरि की पहाड़ियाँ हैं। प्रायद्वीपीय पठारी भागउत्तरी भारत के मैदान के दक्षिण का पूरा भाग एक विस्तृत पठार है जो दुनिया के सबसे पुराने स्थल खंड का अवशेष है और मुख्यत: कड़ी तथा दानेदार कायांतरित चट्टानों से बना है। पठार तीन ओर पहाड़ी श्रेणियों से घिरा है। उत्तर में विंध्याचल तथा सतपुड़ा की पहाड़ियाँ हैं, जिनके बीच नर्मदा नदी पश्चिम की ओर बहती है। नर्मदा घाटी के उत्तर विंध्याचल प्रपाती ढाल बनाता है। सतपुड़ा की पर्वतश्रेणी उत्तर भारत को दक्षिण भारत से अलग करती है और पूर्व की ओर महादेव पहाड़ी तथा मैकाल पहाड़ी के नाम से जानी जाती है। सतपुड़ा के दक्षिण अजंता की पहाड़ियाँ हैं। प्रायद्वीप के पश्चिमी किनारे पर पश्चिमी घाट और पूर्वी किनारे पर पूर्वी घाट नामक पहाडियाँ हैं। पश्चिमी घाट पूर्वी घाट की अपेक्षा अधिक ऊँचा है और लगातार कई सौ मीलों तक, ३,५०० फुट की ऊँचाई तक चला गया है। पूर्वी घाट न केवल नीचा है, बल्कि बंगाल की खाड़ी में गिरनेवाली नदियों ने इसे कई स्थानों में काट डाला है जिनमें उत्तर से दक्षिण महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी मुख्य हैं। दक्षिण में पूर्वी और पश्चिमी घाट नीलगिरि की पहाड़ी में मिल जाते है, जहाँ दोदाबेटा की ८,७६० फुट ऊँची चोटी है। नीलगिरि के दक्षिण अन्नामलाई तथा कार्डेमम (इलायची) की पहाड़ियाँ हैं। अन्नामलाई पहाड़ी पर अनेमुडि, पठार की सबसे ऊँची चोटी (८,८४० फुट) है। इन पहाड़ियों और नीलगिरि के बीच पालघाट का दर्रा है जिससे होकर पश्चिम की ओर रेल गई है। पश्चिमी घाट में बंबई के पास थालघाट और भोरघाट दो महत्वपूर्ण दर्रे हैं जिनसे होकर रेलें बंबई तक गई हैं। उत्तर-पश्चिम में विंध्याचल श्रेणी और अरावली श्रेणी के बीच मालवा के पठार हैं जो लावा द्वारा निर्मित हैं। अरावली श्रेणी दक्षिण में गुजरात से लेकर उत्तर में दिल्ली तक कई अवशिष्ट पहाड़ियों के रूप में पाई जाती है। इसके सबसे ऊँचे, दक्षिण-पश्चिम छोर में माउंट आबू (५,६५० फुट) स्थित है। उत्तर-पूर्व में छोटानागपुर पठार है, जहाँ राजमहल पहाड़ी प्रायद्वीपीय पठार की उत्तर-पूर्वी सीमा बनाती है। किंतु असम का शिलौंग पठार भी प्रायद्वीपीय पठार का ही भाग है जो गंगा के मैदान द्वारा अलग हो गया है। दक्षिण के पठार की औसत ऊँचाई १,५०० से ३,०० फुट तक है। ढाल पश्चिम से पूर्व की ओर है। नर्मदा और ताप्ती को छोड़कर बाकी सभी नदियाँ पूर्व की ओर बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं। समुद्रतटीय मैदानपठार के पश्चिमी तथा पूर्वी किनारों पर उपजाऊ तटीय मैदान मिलते हैं। पश्चिमी तटीय मैदान संकीर्ण हैं, इसके उत्तरी भाग को कोंकण तट और दक्षिणी भाग को मालाबार तट कहते हैं। पूर्वी तटीय मैदान अपेक्षाकृत चौड़ा है और उत्तर में उड़ीसा से दक्षिण में कुमारी अंतरीप तक फैला हुआ है। महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियाँ जहाँ डेल्टा बनाती हैं वहाँ यह मैदान और भी अधिक चौड़ा हो गया है। मैदान का उत्तरी भाग उत्तरी सरकार तट कहलाता है। द्वीपीय भागभारत में द्वीपीय भागों में अरब सागर में लक्षद्वीप और बंगाल की खाड़ी में अंडमान निकोबार द्वीप समूह हैं। लक्षद्वीप प्रवाल भित्ति जन्य द्वीप हैं या एटॉल हैं वहीं अंडमान निकोबार द्वीप समूह अरकान योमा का समुद्र में प्रक्षिप्त हिस्सा माने जाते हैं और वस्तुतः समुद्र में डोबी हुई पर्वत श्रेणी हैं। अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर ज्वालामुखी क्रिया के अवशेष भी दिखाई पड़ते हैं। इसके पश्चिम में बैरन द्वीप भारत का इकलौता सक्रिय ज्वालामुखी है। जलवायुभारत की जलवायु पर यहाँ के स्थलरूपों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, विशेष कर हिमालय की महान पर्वत श्रेणियों और थार के मरुस्थल का। हिमालय श्रेणियाँ और हिंदुकुश मिलकर भारत और पाकिस्तान के क्षेत्रों की उत्तर से आने वाली ठंढी कटाबैटिक पवनों से रक्षा करते हैं। देखा जाय तो कर्क रेखा भारत के लगभग मध्य से गुजरती है लेकिन यह हिमालय का ही प्रभाव है कि कर्क रेखा के उत्तर का सिन्धु-गंगा का मैदानी भाग भी उष्ण कटिबंधीय जलवायु वाला है। दूसरी ओर थार का मरुस्थल ग्रीष्म ऋतु में तप्त हो कर निम्न वायुदाब केन्द्र के रूप में मानसूनी हवाओं को आकृष्ट करता है जिससे वर्षा होती है।
वस्तुतः भारत के विस्तार और भू-आकृतिक विविधता का भारत की जलवायु पर इतना प्रभाव है कि भारत की जलवायु को सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता। कोपेन के वर्गीकरण में भारत में छह प्रकार की जलवायु का निरूपण है किन्तु यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि भू-आकृति के प्रभाव में छोटे और स्थानीय स्तर पर भी जलवायु में बहुत विविधता और विशिष्टता मिलती है। भारत की जलवायु दक्षिण में उष्ण कटिबंधीय है और हिमालयी क्षेत्रों में अधिक ऊँचाई के कारण अल्पाइन (ध्रुवीय जैसी) एक ओर यह पुर्वोत्तर भारत में उष्ण कटिबंधीय नम प्रकार की है तो पश्चिमी भागों में शुष्क प्रकार की। कोपेन के वर्गीकरण के अनुसार भारत में निम्नलिखित छह प्रकार के जलवायु प्रदेश पाए जाते हैं:
ऋतुएँपरंपरागत रूप से भारत में छह ऋतुएँ मानी जाती रहीं हैं परन्तु भारतीय मौसमविज्ञान विभाग चार ऋतुओं का वर्णन करता है जिन्हें हम उनके परंपरागत नामों से तुलनात्मक रूप में निम्नवत लिख सकते हैं:
जल संसाधनजल उपलब्धताभारत में जल संसाधन की उपलब्धता क्षेत्रीय स्तर पर जीवन-शैली और संस्कृति के साथ जुड़ी हुई है। साथ ही इसके वितरण में पर्याप्त असमानता भी मौजूद है। एक अध्ययन के अनुसार भारत में ७१% जल संसाधन की मात्रा देश के ३६% क्षेत्रफल में सिमटी है और बाकी ६४% क्षेत्रफल के पास देश के २९% जल संसाधन ही उपलब्ध हैं।[1] हालाँकि कुल संख्याओं को देखने पर देश में पानी की माँग अभी पूर्ती से कम दिखाई पड़ती है। २००८ में किये गये एक अध्ययन के मुताबिक देश में कुल जल उपलब्धता ६५४ बिलियन क्यूबिक मीटर थी और तत्कालीन कुल माँग ६३४ बिलियन क्यूबिक मीटर।[2](सरकारी आँकड़े जल की उपलब्धता को ११२३ बिलियन क्यूबिक मीटर दर्शाते है लेकिन यह ओवर एस्टिमेटेड है)। साथ ही कई अध्ययनों में यह भी स्पष्ट किया गया है कि निकट भविष्य में माँग और पूर्ति के बीच अंतर चिंताजनक रूप ले सकता है[3] क्षेत्रीय आधार पर वितरण को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो समस्या और बढ़ेगी।
हालाँकि इन नदियों में भी जल की मात्रा वर्ष भर समान नहीं रहती। भारत में नदियों को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना भी बनी जा रही है जिसमें से कुछ के तो प्रोपोज़ल भी बन चुके हैं।
जल संकटपूरे भारत के आंकड़े देखने पर हमें जल संकट अभी भविष्य की चीज़ नज़र आता है लेकिन स्थितियाँ ऐसी नहीं है। क्षेत्रीय रूप से भारत के कई इलाके पानी की कमी से जूझ रहे हैं। बड़े शहरों में तो यह समस्या आम बात हो चुकी है। पानी कि उपलब्धता से आशय केवल पानी कि मात्रा से लिया जाता है जबकी इसमें पानी की गुणवत्ता का भी समावेश किया जाना चाहिये। आज के समय में भारत की ज्यादातर नदियाँ प्रदूषण का शिकार हैं और भू जल भी प्रदूषित हो रहा है। मई-जून २०१४ में भारत सरकार ने एक अलग मंत्रालय बना कर सबसे पहले भारतीय नदी गंगा के 'शुद्धिकरण' की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की है। अन्य जगहों की तरह भारत में भी भूजल का वितरण सर्वत्र समान नहीं है। भारत के पठारी भाग हमेशा से भूजल के मामले में कमजोर रहे हैं। यहाँ भूजल कुछ खास भूगर्भिक संरचनाओं में पाया जाता है जैसे भ्रंश घाटियों और दरारों के सहारे। उत्तरी भारत के जलोढ़ मैदान हमेशा से भूजल में संपन्न रहे हैं लेकिन अब उत्तरी पश्चिमी भागों में सिंचाई हेतु तेजी से दोहन के कारण इनमें अभूतपूर्व कमी दर्ज की गई है।[7] भारत में जलभरों और भूजल की स्थिति पर चिंता जाहिर की ज रही है। जिस तरह भारत में भूजल का दोहन हो रहा है भविष्य में स्थितियाँ काफी खतरनाक होसकती हैं। वर्तमान समय में २९% विकास खण्ड या तो भूजल के दयनीय स्तर पर हैं या चिंतनीय हैं और कुछ आंकड़ों के अनुसार २०२५ तक लगभग ६०% ब्लाक चिंतनीय स्थितिमें आ जायेंगे।[8] ध्यातव्य है कि भारत में ६०% सिंचाई एतु जल और लगभग ८५% पेय जल का स्रोत भूजल ही है,[9] ऐसे में भूजल का तेजी से गिरता स्तर एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है। प्रमुख नगरभारत में नगरीकरण का प्राचीन इतिहास सिन्धु घाटी सभ्यता के नगरों से शुरू होता है। बौद्ध काल में भी भारत के सोलह महाजनपदों में विभक्त होने के वर्णन में इनकी राजधानियों का प्रमुख नगरों के रूप में उल्लेख होता है। मध्यकाल में दिल्ली, दौलताबाद, जौनपुर, हैदराबाद, इलाहाबाद आदि नगरों के बसने का विवरण मिलता है। दक्षिण भारत के कई नगर चेर चोल और पांड्य राजाओं द्वारा बसाये गये जो कला संस्कृति और व्यापर के समृद्ध केन्द्र थे। औपनिवेशिक काल में व्यापार केलिए बंदरगाहों कलकत्ता, मद्रास, दमण, दीव, पाण्डिचेरी इत्यादि और ग्रीष्मकालीन आवास के रूप में शिमला, मसूरी, दार्जिलिंग, ऊटी, पचमढ़ी इत्यादि पर्यटन नगरों का विकास हुआ। आज़ादी के बाद औद्योगिक केन्द्रों के रूप में कई नगर बसे जैसे जमशेदपुर, दुर्ग, भिलाई, इत्यादि। भारत में नगरों को नगरीय गाँव, क़स्बा, नगर और महानगर नामक श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। जनसंख्या के आधार पर जनगणना विभाग वर्ग-I से लेकर वर्ग-VI तक की श्रेणियों में नगरों को रखता है। वर्ग-I में दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों को रखा जाता है और इन्हें महानगर या दसलाखी नगर कहते हैं। भारत के दसलाखी नगरों की २०११ की जनसंख्या के आधार पर क्रम से सूची[10] इन्हें भी देंखेसन्दर्भ
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