उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलनउत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन, उत्तराखण्ड राज्य के बनने से पहले की वे घटनाएँ हैं जो अन्ततः उत्तराखण्ड राज्य के रूप में परिणीत हुईं। राज्य का गठन ९ नवम्बर, २००० को भारत के सत्ताइसवें राज्य के रूप में हुआ। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड राज्य का गठन बहुत लम्बे संघर्ष और बलिदानों के फलस्वरूप हुआ। उत्तराखण्ड राज्य की माँग सर्वप्रथम १८९७ में उठी और धीरे-धीरे यह माँग अनेकों समय उठती रही। १९९४ में इस माँग ने जनान्दोलन का रूप ले लिया और अन्ततः नियत तिथि पर यह देश का सत्ताइसवाँ राज्य बना। पृष्ठभूमिउत्तरांचल हिमालय पर्वत क्षेत्र के एक बड़े भाग में स्थित है। इस क्षेत्र की सीमायें चीन, तिब्बत एवं नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को छूती हैं। उत्तर प्रदेश की सभी छोटी-बड़ी नदियों का उद्गम इसी क्षेत्र से हुआ है। उत्तरांचल क्षेत्र में छोटी-छोटी पहाड़ियों से लेकर उँची पर्वत श्रंखलाये तक विद्यमान हैं। इनमें अधिकांश समय तक बर्फ से ढकी रहने वाली नन्दा देवी, त्रिशुल, केदारनाथ, नीलकंठ तथा चौखंभा पर्वत चोटियाँ हैं। परिस्थितकीय विभिन्नताओं के कारण इस क्षेत्र में भिन्न-भिन्न वनस्पतियाँ व जीव-जन्तु विद्यमान हैं। उत्तरांचल आन्दोलन - उत्तरांचल को अलग राज्य की मान्यता देने को लेकर उत्तरांचल आन्दोलन सन् १९५७ में प्रारंभ हुआ। उत्तरांचलवासियों की मांग है कि कई राज्य ऐसे हैं जिनका क्षेत्रफल और जनसंख्या प्रस्तावित उत्तरांतल राज्य से काफी कम है। इसके अतिरिक्त पहाड़ों का दुर्गम जीवन और पिछड़े होने की वजह से इस क्षेत्र का संपूर्ण विकास नहीं हो पा रहा है। अत: उत्तराखण्ड को उत्तर प्रदेश से अलग करके उसे सम्पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए। हालांकि उत्तराखण्ड राज्य बनाये जाने के टिहरी के पूर्व नरेश मानवेन्द्र शाह के १९५७ के आन्दोलन से पूर्व ही १९५२ में कम्युनिस्ट नेता पी.सी. जोशी ने पर्वतीय क्षेत्र को स्वायता देने की सर्वप्रथम मांग रखी थी। १९६२ को चीन के साथ युद्ध के समय इस आन्दोलन को राष्ट्रहित में स्थगित कर दिया गया था, बाद में १९७९ में उत्तरांचल क्रान्ति दल (उक्रांद) का गठन मसूरी में हुआ, १२ वर्ष के आन्दोलन के बाद १२ आगस्त १९९१ को उत्तर प्रदेश की विधान सभा ने उत्तरांचल राज्य का प्रस्ताव पास कर केन्द्र सरकार की स्वीकृति के लिए भेजा गया। २४ आगस्त १९९४ को उत्तर प्रदेश विधान सभा में एक बार पुन: उत्तराखण्ड राज्य का प्रस्ताव पास करके केन्द्र सरकार को मंजूरी के लिए भेजा गया। उत्तर में हिमाच्छादित पर्वत श्रंखला, दक्षिण में दून और तराई-भाबर के घने जंगल, पूर्व में सदानीरा काली और पश्चिम में टोंस नदियों की भौगोलिक परिधि में स्थित उत्तरांचल नाम से ज्ञात मध्य हिमालय का प्रदेश एक सांस्कृतिक क्षेत्र माना जाता है। इस प्रान्त का नाम कूर्माचल या कुमाऊँ होने के विषय में यह किम्वदन्ती कुमाउँ के लोगों में प्रचलित है कि जब विष्णु भगवान का दूसरा अवतार कूर्म अथवा कछुवे का हुआ, तो वह अवतार कहा जाता है कि चंपावती नदी के पूर्व कूर्म पर्वत में जिसे आजकल कांड़देव या कानदेव कहते हैं, ३ वर्ष तक खड़ा रहा। उस समय हाहा हूहू देवतागण तथा नारदादि मुनीश्वरों ने उसकी प्रशंसा की। उस कूर्म (कच्छप)-अवतार के चरणों का चिह्न पत्थर में हो गया और वह अब तक विद्यमान होना कहा जाता है। तब से इस पर्वत का नाम कूर्माचल (कूर्मअअचल) हो गया। कूर्माचल का प्राकृत रूप बिगड़ते-बिगड़ते 'कूमू' बन गया और यही शब्द भाषा में 'कुमाऊँ' में परिवर्तित हो गया। पहले यह नाम चंपावत तथा उसके आसपास के गाँवों को दिया गया। तत्पश्चात काली नदी के किनारे के प्रान्त-चालसी, गुमदेश, रेगङू, गंगोल, खिलफती और उन्हीं से मिली हुई ध्यानिरौ आदि पट्टियाँ भी काली कुमाऊँ नाम से प्रसिद्ध हुई। ज्यों-ज्यों चंदों का राज्य-विस्तार बढ़ा, तो कूर्माचल उर्फ़े कुमाऊँ इस सारे प्रदेश का नाम हो गया। सब लोग में यही बात प्रचलित है कि कुमाऊँ का नाम कूर्मपर्वत के कारण पड़ा, पर ठा. जोधसिंह नेगीजी 'हिमालय-भ्रमण' में लिखते हैं - "कुमाऊँ के लोग खेती व धन कमाने में सिद्धहस्त हैं। वे बड़े कमाउ हैं, इससे इस देश का नाम कुमाउँ हुआ"। काली कुमाऊँ का नाम काली नदी के कारण नहीं, बल्कि कालू तड़ागी के नाम से पड़ा, जो किसी समय चम्पावत में राज्य करता था। इन तथ्यों को स्वीकार करना है कि किसी भू-प्रदेश का नाम किसी राजा के नाम से प्रचलित होना सार्वदेशिक नियम नहीं हैं। किसी प्रदेश या भूभाग का नाम किसी कारण से अधिक प्रसिद्ध होते हैं। देवदारु और बाँझ की घनी, काली झाड़ियों से भी इसका विशेषण 'काली' गया है। चंद राजाओं के समय ऐसा भी हमें मालूम हुआ है कि कुर्माचल में तीन शासन मंडल थे - १. काली कुमाऊँ जिसमें काली कुमाऊँ के अतिरिक्त सारे, सीरा अस्कोट भी शामिल थे। २. अल्मोड़ा - जिसमें सालम, बारामंडल पाली तथा नैनीताल के वर्तमान पहाड़ी इलाके थे। ३. तराऊ भावर का इलाका या माल। ये शासन मंडल उस समय थे, जब चंद-राज्य चरम सीमा को पहुँच गया था। कुमाऊँ को हूणदेश वाले 'क्युनन' अँग्रेज 'कमाऊन' (कहसोदल), देशी लोग 'कमायूं' यहाँ को रहने वाले 'कुमाऊँ' और संस्कृतज्ञ 'कूर्माचल' कहते हैं। खास काली कुमाऊँ में चंपावत का नाम 'कुमू' कहा जाता है। वहाँ अब भी लोग चंपावत को 'कुमू' कहते हैं। संक्षिप्त इतिहासउत्तराखण्ड संघर्ष से राज्य के गठन तक जिन महत्वपूर्ण तिथियों और घटनाओं ने मुख्य भूमिका निभाई वे इस प्रकार हैं :-
राज्य आन्दोलन की घटनाएँउत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन में बहुत सी हिंसक घटनाएँ भी हुईं जो इस प्रकार हैं :- खटीमा गोलीकाण्ड१ सितम्बर, १९९४ को उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का काला दिवस माना जाता है, क्योंकि इस दिन जैसी पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्यवाही इससे पहले कहीं और देखने को नहीं मिली थी। पुलिस द्वारा बिना चेतावनी दिए ही आन्दोलनकारियों के ऊपर अंधाधुंध फ़ायरिंग की गई, जिसके परिणामस्वरुप सात आन्दोलनकारियों की मृत्यु हो गई। खटीमा गोलीकाण्ड में मारे गए शहीद :-
इस पुलिस फायरिंग में बिचपुरी निवासी श्री बहादुर सिंह और श्रीपुर बिछुवा निवासी श्री पूरन चन्द भी गम्भीर रूप से घायल हुए थे। मसूरी गोलीकाण्ड२ सितम्बर, १९९४ को खटीमा गोलीकाण्ड के विरोध में मौन जुलूस निकाल रहे लोगों पर एक बार फिर पुलिसिया क़हर टूटा। प्रशासन से बातचीत करने गईं दो सगी बहनों को पुलिस ने झूलाघर स्थित आन्दोलनकारियों के कार्यालय में गोली मार दी। इसका विरोध करने पर पुलिस द्वारा अंधाधुंध फ़ायरिंग कर दी गई, जिसमें लगभग २१ लोगों को गोली लगी और इसमें से चार आन्दोलनकारियों की अस्पताल में मृत्यु हो गई। मसूरी गोलीकाण्ड में मारे गए शहीद :-
रामपुर तिराहा (मुज़फ़्फ़रनगर) गोलीकाण्ड२ अक्टूबर, १९९४ की रात्रि को दिल्ली रैली में जा रहे आन्दोलनकारियों का रामपुर तिराहा, मुज़फ़्फ़रनगर में पुलिस-प्रशासन ने जैसा दमन किया, उसका उदाहरण किसी भी लोकतान्त्रिक देश तो क्या किसी तानाशाह ने भी आज तक दुनिया में नहीं दिया होगा। निहत्थे आन्दोलनकारियों को रात के अन्धेरे में चारों ओर से घेरकर गोलियाँ बरसाई गईं और पहाड़ की सीधी-सादी महिलाओं के साथ दुष्कर्म तक किया गया। इस गोलीकाण्ड में राज्य के ७ आन्दोलनकारी शहीद हो गए थे। इस गोलीकाण्ड के दोषी आठ पुलिसवालों पर, जिनमें तीन पुलिस अधिकारी भी हैं, पर मामला चलाया जा रहा है।[1] रामपुर तिराहा गोलीकाण्ड में मारे गए शहीदः
देहरादून गोलीकाण्ड३ अक्टूबर, १९९४ को रामपुर तिराहा गोलीकाण्ड की सूचना देहरादून में पहुँचते ही लोगों का उग्र होना स्वाभाविक था। इसी बीच इस काण्ड में शहीद स्व० श्री रवीन्द्र सिंह रावत की शवयात्रा पर पुलिस के लाठीचार्ज के बाद स्थिति और उग्र हो गई और लोगों ने पूरे देहरादून में इसके विरोध में प्रदर्शन किया, जिसमें पहले से ही जनाक्रोश को किसी भी हालत में दबाने के लिये तैयार पुलिस ने फ़ायरिंग कर दी, जिसने तीन और लोगों को इस आन्दोलन में शहीद कर दिया। देहरादून गोलीकाण्ड में मारे गए शहीद:
स्व० राजेश रावत की मृत्यु तत्कालीन समाजवादी पार्टी ने सूर्यकान्त धस्माना के घर से हुई फ़ायरिंग में हुई थी। कोटद्वार काण्ड३ अक्टूबर १९९४ को पूरा उत्तराखण्ड रामपुर तिराहा काण्ड के विरोध में उबला हुआ था और पुलिस-प्रशासन किसी भी प्रकार से इसके दमन के लिये तैयार था। इसी कड़ी में कोटद्वार में भी आन्दोलन हुआ, जिसमें दो आन्दोलनकारियों को पुलिसकर्मियों द्वारा राइफ़ल के बटों व डण्डों से पीट-पीटकर मार डाला गया कोटद्वार काण्ड में मारे गए शहीद:
नैनीताल गोलीकाण्डनैनीताल में भी विरोध चरम पर था, लेकिन इसका नेतृत्व बुद्धिजीवियों के हाथ में होने के कारण पुलिस कुछ कर नहीं पाई, लेकिन इसकी भड़ास उन्होंने निकाली होटल प्रशान्त में काम करने वाले प्रताप सिंह के ऊपर। आर०ए०एफ० के सिपाहियों ने इन्हें होटल से खींचा और जब ये बचने के लिये होटल मेघदूत की तरफ़ भागे, तो इनकी गर्दन में गोली मारकर हत्या कर दी गई। नैनीताल गोलीकाण्ड में मारे गए शहीद:
श्रीयन्त्र टापू (श्रीनगर) काण्डश्रीनगर शहर से २ कि०मी० दूर स्थित श्रीयन्त्र टापू पर आन्दोलनकारियों ने ७ नवम्बर, १९९४ से इन सभी दमनकारी घटनाओं के विरोध और पृथक उत्तराखण्ड राज्य हेतु आमरण अनशन आरम्भ किया। १० नवम्बर, १९९४ को पुलिस ने इस टापू में पहुँचकर अपना क़हर बरपाया, जिसमें कई लोगों को गम्भीर चोटें भी आई, इसी क्रम में पुलिस ने दो युवकों को राइफ़लों के बट और लाठी-डण्डों से मारकर अलकनन्दा नदी में फेंक दिया और उनके ऊपर पत्थरों की बरसात कर दी, जिससे इन दोनों की मृत्यु हो गई। श्रीयन्त्र टापू में मारे गए शहीद:
इन दोनों शहीदों के शव १४ नवम्बर, १९९४ को बागवान के समीप अलकनन्दा नदी में तैरते हुए पाए गए थे। इन्हें भी देखेंसन्दर्भ
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